Friday, January 30, 2009

ऐसे मैं मन बहलाता हूँ!

सोचा करता बैठ अकेले,

गत जीवन के सुख-दुख झेले,

दंशनकारी सुधियों से मैं उर के छाले सलाता हूँ!

ऐसे मैं मन बहलाता हूँ!


नहीं खोजने जाता मरहम,

होकर अपने प्रति अति निर्मम,

उर के घावों को आँसू के खारे जल से नहलाता हूँ!

ऐसे मैं मन बहलाता हूँ!


आह निकल मुख से जाती है,

मानव की ही तो छाती है,

लाज नहीं मुझको देवों में यदि मैं दुर्बल कहलाता हूँ!

ऐसे मैं मन बहलाता हूँ!

-बच्चन

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